अरे शिल्पकार
धन्यवाद तुम्हें बारम्बार
धन्य तुम्हारी कला ,
धन्य तुम्हारे छैनी गज और हथोड़े
जो गिनती में बहुत थोड़े |

आश्चर्य तुम पंद्रह दिनों में ही
किसी भी उपेक्षित पत्थर को भगवन बना देते हो
हम कलम के धनी होकर
पन्द्रह वर्षो में भी
इन्सान को इन्सान नहीं बना पाते हैं

तोते की तरह रटा भी दे सारी ऋचाएं और आयतें
तब भी कुछ आरक्षण की आग में डिग्रिया जला कर
खुद जल जाते हैं |
कुछ फोड़ देते हें बसों के शीशे
जी भर के करते तोड़ फोड़
जैसे सर्कस के हाथी हो गए हों पागल

बिजली के शंटर भी बेअसर हो जाते
और
उज्ज्वल चरित्र प्रमाण पत्रों पर
प्रशासन लगा देता हें मुहर बगावत की

लग जाती हें उनकी भी फोटो
पुलिस थाने के हिस्ट्री शीटरों के बीच

सुनो शिल्पकारों

इतनीसी कला तो हमें भी देदो उधार
कि हम इन्सान को भले भगवान नहीं
मगर ईमानदार इन्सान तो बना सकें

अमृत ‘वाणी’

सुनो शिल्पकार